मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

दैनिक जनसंदेश लखनऊ के - चकल्‍लस - में प्रकाशित एक व्‍यंग्‍य लेख
आप भी मजा लें


मैं प्रधानमंत्रिन नहीं बनना चाहती
·         पी के शर्मा

आजकल प्रधान पद के लिए उम्‍मीदवारों के नामों की चर्चाएं बिना पंख उड़ रही हैं। अंदर ही अंदर जुगाड़ किये जा रहे हैं, तिकड़म भिड़ाई जा रहीं हैं। मोर्चे खोले जा रहे हैं। सैनिकों के लिए सीमा पर होता है मोर्चा, जहां वो सिर कटवाता है, खुद को कुर्बान करके देश की रक्षा करता है। इनका मार्चा अलग किस्‍म का होता है। इनके मोर्चों में सिर कटने का डर नहीं होता। कुर्बानी की बात तो दूर दूर तक नहीं होती, यहां तो सिरमौर चुना जाता है। चुनावों की घोषणा तक नहीं हुई है। इसे कहते हैं सूत न कपास, जुलाहे से लठ्ठम-लठ्ठा। अब क्‍या करूं इन दिनों मेरी भी नींद उड़ रही है। क्‍योंकि मेरा नाम कोई नहीं ले रहा है। मैं भी खाली हूं, भारतीय रेल को गुड बाय कहने के बाद। मेरी योग्‍यताओं पर किसी को कोई शक नहीं होना चाहिए। रेलवे भी अपने आप में एक छोटा भारत है। पौने चौंतिस साल रेल ने झेल लिया। देश भी झेल ही लेगा। ये तो देश की जनता के ऊपर है, कैसे झेलेगी। बड़ी सहनशील है। मैं तो हर तरह से झिलने को तैयार हूं। यहां तो कुल जमा पांच साल का ड्रामा है। एक ही लोकसभा जो अक्‍सर ठप्‍प रहती है, काफी है तख्‍ती पर नाम लिखाने के लिए। भले ही मैं किसी रियासत का राजा न रहा, राजकुमार न रहा, नेता न रहा। मैं तो क्‍या, मेरे खानदान तक में कोई नहीं रहा। सभी मेहनत की कमाई पर आजीविका चलाते रहे। जरूरी तो नहीं इस पद के लिए राजा होना, राजकुमार होना या नेता होना, कोई अतिरिक्‍त योग्‍यता मानी जाए।
मेरे इरादे भांप कर पत्‍नी बोली... इतनी ऊंची मत फैंको कि लपक ही न पाओ। यहां राजे रजवाड़े, लोंडे लपाड़े बहुत हैं। ये जो राजा और राजकुमार हैं, प्रधान की कुर्सी पर इन्‍हीं का अधिकार है। ये इण्डिया है, इंग्‍लैंड नहीं... जो खानदानी राजकुमार को फोजी बनाकर लड़ाई के मैदान में भेज दे कि जा बेटा जिस देश का तू राजकुमार है, उस देश की रक्षा करना सीख। सैनिक बनकर देश की रक्षा करना ही धर्म है। खाली घोड़े दौड़ाने से राजकुमार, राजकुमार नहीं होता.... घोड़े [बंदूक के] दबाना भी सीख। अपने यहां तो राजकुमार हो या नेता, बेतुके बयान दागना  सीख ले तो काफी है। ये भी किसी गोले दागने से कम नहीं। दाग कर मौन हो जाए, ये अतिरिक्‍त योग्‍यता मानी जाती है। देश पर जान लुटाने वाले और सिर कटाने वाले तो गांवों और गरीब किसानों के घरों में जनम लेते हैं। आप भी गरीब किसान के घर ही पैदा हुए हो, कोई सोने की चम्‍मच मुंह में लेकर इस दुनिया में नहीं आये हो। आप इस पद के काबिल तब हो सकते हो जब, एक हाथ से सिर कटे शहीद के शव पर फूल चढ़ाओ और दूसरे को दुश्‍मन देश से दोस्‍ती के लिए बढ़ाओ। क्‍या ऐसा दोगला काम कर पाओगे..... ? सच पूछो तो मैं प्रधानमंत्रिन नहीं बनना चाहती तो... आप क्‍या कर लोगे.... कहीं तो मेरी भी चलेगी।     
सच में पत्‍नी जी ने दिया ऐसा झटका, मुझे ख्‍वाबों से सच्‍चाई के धरातल पर ला पटका। फिर प्‍यार से समझाया कि अब पेंशन मिलेगी। इसमें ज्‍यादा टेंशन लेने की जरूरत नहीं है। दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ। अच्‍छा होगा इस कुर्सी की तरफ मत देख, लिखो और लिखते रहो अपने व्‍यंग्‍य लेख। इसी में रस है, इसी में भलाई है। अगर एक लेख से जनता के चेहरे से उदासी गायब और मुस्‍कान उतर आयी है, तो ये ही असली कमाई है। फिर तुम सा कोई धनवान नहीं और मुझ सी भाग्‍यवान नहीं।  

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शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

आप भी पढि़ये हरिभूमि में प्रकाशित एक व्‍यंग्‍य





लिखो भैंस पर
·         पी के शर्मा

आज मैं आपको प्रसंगवश गांव की एक सच्‍ची घटना सुनाता हूं। एक बार भैंस गांव के जोहड़ में स्‍नान कर रही थी और काफी देर से चाचाश्री अपने बड़े भाई के आदेशानुसार उस भैंस को हरी-हरी घास दिखा कर बुला रहे थे। काफी देर से डे..ड़ा.... डे..ड़ा कर रहे थे, लेकिन भैंस थी कि आने का नाम ही नहीं ले रही थी। चाचाश्री का पारा सातवें आसमान को छू रहा था। खैर जैसे-तैसे भैंस बाहर आयी और घेर में पहुंच गयी। चाचाश्री ने उसे खूंटे से बांध कर डण्‍डे से पिटाई शुरू कर दी। कुछ समय बाद पिताश्री पहुंचे तो उन्‍होंने पूछा.... अरे.... ये किस की भैंस को पीट रहा है .. । तुझे अपनी भैंस की पहचान नहीं है... चाचाश्री प्रश्‍नवाचक दृष्टि के साथ बोले... दुनिया में ऐसा कौन है जो अपनी भैंस को पहचानता हो.... ?
  ये तो थी आपको गुदगुदाने वाली एक घटना। अभी-अभी एक और भैंस-प्रकरण का जन्‍म हुआ है देश में। जैसे ही खबर मिली... व्‍यंग्‍यकारों ने, पत्रकारों ने कलम को धार लगाई और पिल पड़े भैंस पर लिखने में। व्‍यंग्‍यकारों की कलम भैंस पर सरपट चल रही है। सब प्रसिद्धि के भूखे हैं। जैसे भैंस प्रसिद्धि को प्राप्‍त हुई है, वैसे ही उनका लेख भी लाइम लाइट में आयेगा। और लेख लाइम लाइट में आयेगा तो लेखक भी। बस... लगा दो तीर निशाने पर। लोहा गरम हो तो चोट चाहिए। कहने का मतलब... गाय के बजाय भैंस इनको साहित्‍य की वैतरणी पार कराएगी। सच में... अक्‍ल बड़ी या भैंस में भैंस ही बड़ी दिख रही है। इधर बेचारी पुलिस हमेशा ही उपहास के काबिल समझी गयी, सो इस बार भी उस पर छींटाकशी हुई ही। मेरी भी समझ में ये बात अब आ पायी है कि नौकरी मिलते ही पुलिसजी के हाथ में डण्‍डा किस लिए थमाया जाता है। आज तो भैंस हैं कल अगर गधे चोरी हुए तो.... इसी तरह काम आयेगा। अंतत: खुशी की बात ये है कि भैंस मिल गयीं और पुलिस की तत्‍परता काबिले तारीफ समझी गयी। कुछ पुलिस वालों का लाइन हाजिर होना कोई मायने नहीं रखता। भैंस पर बहस अब भी जारी है। भैंस को अतिरिक्‍त सम्‍मान दिया ही जाना चाहिए था। ये काली कलूटी भैंस न हो तो काली कलूटी चाय सुड़पनी पड़ती है। सोच लो..... दूध और घी के लाले पड़ जायेंगे... भैंस के बिना।
मैं बहस का रुख दूसरी तरफ मोड़ देना चाहता हूं क्‍योंकि ये सम्‍मान जो भैंसों के हिस्‍से आया, असल में यह नेताओं के हिस्‍से का है। केवल सम्‍मान ही नहीं, ये हिन्‍दुस्‍तान भी इन्‍हीं के हिस्‍से का है। हम और आप तो इसमें रहने का भी टैक्‍स दे रहे हैं, मंहगाई के रूप में। आम-जन का बालक भी गुम हो जाए तो किसी भी पक्ष से भैंसों जैसा सम्‍मान नहीं मिल पायेगा। अगर इन कलमकारों की कलम और देश की पुलिस, किसी बच्‍चे के गुम होने पर भी चले तो, मैं भी सलाम करूं ऐसी मुहिम को, और आप भी। सही है न....  
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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

आओ नोट बदलवा लें...... अगर हैं.... तो...




एक थैला नोट और खून का घू्ंट
·        पी के शर्मा

पत्‍नी फोन पर बात कर रही थी। मैं अवाक रह गया। वार्तालाप का पचास परसैंट ही सुन पा रहा था। पत्‍नी भले ही न हो, पर उसकी तेजतर्रारी देखने लायक थी।
कह रही थी.... क्‍या पापा आप भी... बस.... तुम्‍हें और कोई नहीं मिला था.... पूरी दुनिया में बस... एक ये ही मिला.... अब क्‍या पूछते हो हुआ क्‍या है.... कल तक मोहल्‍ले में मेरी शान, रैंकिंग में नंबर वन थी.... आज भारतीय टीम की तरह लड़ कर भी लड़खड़ा रही है... उसका क्‍या... वो तो नंबर दो पर आ जायेगी.... पर मेरी रैंकिंग तो रेत में मिल गयी न.... ये किस नंबर पर आयेगी.... अब क्‍यों पूछते हो, हुआ क्‍या है ? ... हां... हुआ वही है जो नहीं होना चाहिए था... वो है न मेरी पड़ौसन गीतू... बता रहीं थी... बता क्‍या रही थी... मुझे सुना रही थी.... मेरे सीने पर छुरियां चला रही थी... कह रही थी... मैं तो कल गयी थी बैंक.... एक थैला नोट ले गयी थी... बदलवा कर लायी हूं... पुराने थे न... अब रिजर्व बैंक का क्‍या भरोसा... आज तो बदल भी रहा है.... कल बंद कर दिये तो.... रद्दी वाले को बेचने पड़ेंगे... नहीं पापा... आप नहीं जानते उसे.... वो कह रही थी....  अगर 2005 से पहले के नोट बंद हो गये तो हम भी तुम्‍हारी तरह हो जाएंगे.... मैं, खून का घूंट पीकर रह गयी.... [सुबकते हुए]... ये सब आपकी गलती है... आप भी सीधे-सादे पर लट्टू हो गये.... कोई धन्‍नासेठ का बेटा ढूंढ़ते तो.... मैं भी कह देती... मुझे तो आज टाइम नहीं मिला जाने का.... हां अटैची भर कर रख दी है... हो सका तो कल जाऊंगी.... छुरी का जवाब तलवार से देती... साथ में ये भी कह देती कि मैंने तो एक थैला बेचारे रद्दी वाले को वैसे ही दे दिया है... वो भी क्‍या याद करेगा.... उसकी रैंकिंग में भी सुधार होता और मेरी रैंकिंग के साथ-साथ आपकी रैंकिंग भी सुधर जाती.... मेरे मौहल्‍ले में ।
धीरे-धीरे मैं उसके पास पहुंचा तो उधर से रिसीवर में हलो... हलो हो रही थी और इधर ये सुबक-सुबक कर रो रही थी। मैंने उसे धीरज बंधाया.... क्‍यों परेशान होती है... हमारी जो भी कमाई है.... मेहनत की है.... एकदम साफ सुथरी झक्‍क सफेद... नज़र भी नहीं लगेगी.... कहीं भी काला टीका नहीं लगा है और न ही लगाया है। इस पर गर्व कर। घमंड तो सब कर लेते हैं पर गर्व कोई-कोई कर पाता है। मैंने अपने भारतीय रेल सेवाकाल में जिस सावधानी से ट्रेनों का संचालन कराकर करोड़ों भारतीयों की सुरक्षित यात्रा में योगदान किया है, वह दुनिया के किसी भी बड़े धन से कम नहीं है।  बोरे भरे नोटों से इस धन की तुलना हो ही नहीं सकती। मायावी और झूठी शान-औ-शौकत के बजाय सच्‍चाई के मार्ग पर चल कर जो सुख मिलता है वह अतुलनीय है। माया की छाया में रहेगी तो चैन की नींद नहीं ले पायेगी। आ... चल... छोड़... एक-एक कप ग्रीन टी पीते हैं, मुस्‍कुराहट के साथ।


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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

सामूहिकता की भावना

दैनिक जन संदेश लखनऊ से प्रकाशित समाचार-पत्र में  'उलटबांसी'

आदमी की कुत्‍तई...
·         पी के शर्मा                                        

जानते हो ‘गीक’ किसे कहते हैं?  एक सर्वे के मुताबिक यह सब्‍द सबसे ज्‍यादा चर्चित हुआ है। ये फैशन से दूर रहने वालों के लिए इस्‍तेमाल होने वाला शब्‍द है। कालिंस आन लाइन शब्‍दकोष के अनुसार ये सबसे चर्चित शब्‍द बन गया है। खबर लंदन से है। खबर कहीं से भी क्‍यों न हो.... मैं नहीं मानता। मानूं भी कैसे ?  सबसे ज्‍यादा चर्चित शब्‍द तो कर्म है। कर्म को हमने गीता के ज्ञान से प्राप्‍त किया है। कर्म में हमारा अटूट विश्‍वास है। हम लोग श्री कृष्‍ण जी के गीता ज्ञान से प्रभावित होकर कर्म के हर रूप में विश्‍वास रखते हैं। हमने इसका कई रूपों में स्‍वागत सत्‍कार किया है। विविधता अधिकतर आनंददायक होती है। जैसे रसगुल्‍ला, रसमलाई, जलेबी, बर्फी और गुलाबजामुन सभी मिठाइयां ही तो हैं। सभी में स्‍वाद अलग है। किसी को कोई स्‍वाद पसंद तो किसी को कोई। पर मिठास तो एक ही है। ये ही मूल स्‍वाद है। सब की माता शक्‍कर ही तो है।
इसी तरह कर्म है। कर्म के भी विविध रूप हैं। जैसे सत्‍कर्म, दुष्‍कर्म, कुकर्म और क्रियाकर्म। लोग इस सभी रूपों को समानता के आधार पर सम्‍मान देते हैं। कर्म करते रहते हैं फल की इच्‍छा नहीं करते हैं। एक फिल्‍मी गाना भी तो है –
कर्म किये जा फल की इच्‍छा मत कर ए इंसान। जैसे कर्म करेगा वैसे फल देगा भगवान । ये है गीता का ज्ञान.... ।
कुछ साधू-संत भी यही सिखा रहे हैं। प्रयोग कर करके बता रहे हैं और लोग अनुसरण कर रहे हैं। अब आप ही बताइये ये ‘गीक’ शब्‍द कैसे सर्वाधिक चर्चित हो गया ... ?  ‘गीक’ शब्‍द की औकात ही क्‍या है। दुष्‍कर्म या कुकर्म की औकात देखते ही बनती है। गजब का प्रचार पाता है ये। वैसे, ऐसे कर्म करने के लिए भी हिम्‍मत हैवानियत की दरकार होती है। हैवानियत और पैशाचिक प्रवृत्ति के साथ किये गये कर्म अधिक चर्चित होते हैं। ये शब्‍द इतना चर्चित हो गया है कि इसका प्रयोग अधिकतम लोग करने लगे हैं। शब्‍द का नहीं, कर्म के इस रूप का।  
एक और बात है जो सामाजिक एकता की मिसाल बन रही है। लोग सामूहिक रूप से मिलजुल कर करने लगे हैं। दुष्‍कर्म या कुकर्म को एक नया नाम देना पड़ रहा है। आम भारतीयों की तरह ये शब्‍द भी अंग्रेजी की छाया से नहीं बच पाया। इसे गैंग रेप कहने लगे हैं। कुकर्म के बाद ये गैंगरेप ही चर्चा की बुलंदियों को छूने वाला है। मैं दावे से कह सकता हूं कि ‘गीक’ शब्‍द, शब्‍दकोष से ही झांकता रहेगा, जमाने से मुंह छुपाने की जगह भी नहीं मिलेगी।
अब छोडि़ये ‘गीक’ की बातें, आदमी की बात करते हैं। आदमी नये-नये कर्म करते रहना चाहता है। प्रकृति से, आसपास के वातावरण से कुछ न कुछ सीखता भी रहता है। सीखना एक अच्‍छी आदत है। किसी से कुछ भी सीखा जा सकता है। शेर से, निडर रहना। हाथी से, मस्‍त रहना। गिरगिट से, रंग बदलना। कुत्‍तों से भी वफादारी का पाठ सीखता है। उसकी सूंघने की शक्ति का भी लाभ उठाना बुरी बात नहीं है। निश्चित रूप से आदमी को कुत्‍तों की किसी और आदत को नहीं अपनाना चाहिए था। आदमी को इतना समझदार तो होना ही चाहिए कि वह किसी की कौन सी हरकत से सीखे और कौन सी हरकत से नहीं।
आइये अंत में क्रियाकर्म की बात करते हैं। ये एक ऐसा कर्म है, जो अंतकर्म के नाम से भी जाना जाता है। मैं भी अपने लेख का अंत कर रहा हूं.... इस उम्‍मीद के साथ कि आदमी उन बुराइयों का क्रियाकर्म कर डाले जो समाज में किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए ताकि आदमी की कुत्‍तों से तुलना न की जा सके......


पी के शर्मा
1/12 रेलवे कालोनी सेवानगर नई दिल्‍ली
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