बुधवार, 22 दिसंबर 2010

हरिभूमि में प्रकाशित एक व्‍यंग्‍य हरी बत्‍ती हो गयी


मैं उस समय बहुत दुखी होता हूं जब देश की राजधानी की लाल बत्तियों पर भिखारी मुझे खारी-खारी नजरों से देखते हैं। दूर-दूर रहते हैं। बड़ी-बड़ी कारों के काले शीशों के अंदर झांकने का प्रयास करते हैं। किसी का शीशा खुल जाता है किसी का नहीं खुलता। मैं उन शीशों को और दस या बीस का नोट बाहर आते तथा भिखारी को लपकते देखता हूं। दिल से एक टीस सी उठती है। थोड़ा अपमानित सा महसूस करता हूं। आखिर मैं भी कार में हूं। फिर मेरे प्रति इतना अन्‍याय या बेरुखी क्‍यों ? मैं सोचता हूं .... काश मैं भी शीशा खोलता। कभी कभी ख्‍यालों को वास्‍तविक जानकर खोला भी, पर ठण्‍डी हवा के झोंके ने भ्रम तोड़ दिया। शीशे के पास कोई भिखारी नहीं था। भिखारिन भी दूर से मुंह बिचका रही थी। शायद मेरी गाड़ी में पड़े डेंट देखकर.... जैसे डेंट, मेरी गाड़ी पर न होकर पर्स पर हों। हो सकता है मेरे चेहरे पर कोई डेंट दिख गया हो। इसी शंका में तो मैं रियर व्‍यू मिरर की हैल्‍प लेता हूं और एक तसल्‍ली भरी सांस अंदर खींच लेता हूं कि उम्र अभी अपने संपूर्ण माह की बीस या इक्‍कीस तारीख से आगे नहीं गयी है। वैसे मुझे अभी भारतीय रेल ने भी हरी झण्‍डी नहीं दिखाई है। अब मैं अक्‍सर लाल बत्तियों पर शीशे खोलकर रखने लगा हूं। काश कोई भिखारी आए...हाथ फैलाए और मैं गर्व से सुर्खरु हो जाऊं कि जमाना ही नहीं, हम भी हैं। लेकिन अब तक, सब निरर्थक। गाड़ी छोटी जो है। इन बड़ी गाडि़यों से कभी-कभी सौ-सौ या पीले और लाल रंग के नोट भी दिखे हैं, तब तो मुझे यकीन हो जाता है कि जरूर इसमें कोई ‘राजा’ ही होगा। पत्‍नी भी बराबर में बैठी मन ही मन तोहीन महसूस कर रही थी कि, किस कर्तव्‍यनिष्‍ठ के पल्‍ले पड़ गयी। आज तक किसी रेलगाड़ी को भी स्‍पैक्‍ट्रम नहीं बना पाया। गाड़ी और डिब्‍बे की छोड़ो, एक अदद सीट भी नहीं हथिया सके। एक वो हैं जो पूरा इंद्रधनुष ही सटक गये। एक-आध सीट बिकवा देते तो मोहल्‍ले में थू-थू तो होती। अखबारों में खबरें छपतीं। जमाने की नहीं तो गली मोहल्‍ले वालों की ही सही, हमारी तरफ उंगलियां तो उठती। और हम उन उठती उंगलियों की परवाह किये बगैर बड़ी ढीटता से रह रहे होते। कैसा पति है, ऐसा-वैसा कुछ किया होता, तो गर्व होता। खुद भी राजा होते और मैं भी.... इतना सोचते हुए पत्‍नी ने कुपित दृष्टि से घूरा। नज़रों को भांप कर मैंने समझाया....मैं, कम से कम तेरे पास तो हूं...वरना डासना की जेल देखी है? और तिहाड़ तो उससे भी भयानक दिखती है। मैं समझा ही रहा था कि पीछे से सीटी बजी। पुलिस वाला कह रहा था हरी बत्‍ती हो गयी- चलिये, ट्रैफिक जाम न करिये।

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

सर्दी के दोहे

शीतलहर के कोप का चला रात भर दौर
धुंध ओढ़कर आ गयी भयाक्रांत सी भौर

सूरज कोहरे में छिपा हुआ चांद सा रूप
शरद ऋतु निष्‍ठुर हुई भागी डरकर धूप

सूरज भी अफसर बना, है मौसम का फेर
जाने की जल्दी करे और आने में देर

दिन का रुतबा कम हुआ, पसर गयी है रात
काटे से कटती नहीं, वक्त-वक्त की बात