सोमवार, 22 मार्च 2010

बड़ों के लिए बाल कविता

बिल्‍ली आयी बिल्‍ली आयी


बिल्‍ली आयी बिल्‍ली आयी
दौड़ भाग कर दिल्‍ली आयी
खेल रहा था लगातार
एक चूहा देखा सड़क पार

आया उसके मुंह में पानी
झट से अपनी मूंछें तानी
तड़प रही थी भूख की मारी
लेकिन क्‍या करती बेचारी

मोटर गाड़ी कार सवार
सबकी खूब तेज रफ्तार
चले सड़क पर भीड़ अपार
बिल्‍ली कैसे जाए पार

बिल्‍ली मौसी हुई उदासी
खड़ी रही यूं भूखी प्‍यासी
ढलते ढलते हो गयी शाम
नहीं बना खाने का काम

थककर हारी हो गयी बोर
भाग गयी जंगल की ओर
अब न बात बनाएं हम
आओ सब जग जाएं हम

यातायात घटाना अब तो
जन जन की जिम्‍मेदारी है
वरना
अभी सिर्फ बिल्‍ली भागी है
आगे हम सब की बारी है

सोमवार, 1 मार्च 2010

आओ हंस लें....... भला मानो होली है

दुविधा ही दुविधा उन्‍हें जो चश्‍मे बद्दूर
बिन चश्‍में रहता नहीं है चेहरे का नूर

जब चश्‍मा हो नाक पर बरसे रंग हजार
कुछ भी तो दिखता नहीं शीशों के उस पार

क्रोधित हों या जतलाएं मुस्‍काकर के प्‍यार
नर था ये कोई सांड सा या थी कमसिन नार

दिखने में बाधा करे होली पर हर वक्‍़त
हालत को मुश्किल करे ये सुसरा कमबख्‍़त

भला मानो होली है

निवेदन फागुन से

न जाने कब क्या हुआ बचपन हो गया लुप्त
यौवन छलके देह से फागुन रखियो गुप्त
कुछ छींटे महसूस कर भीगा सारी रात-
मौसम हुआ शरारती खबर बांट दी मुफ्त

भांग और होली

लगती पीकर भांग को होली बड़ी विचित्र
फिर तो भाभी सा लगै देखो अपना मित्र
अगर कहीं वो पास नहीं हो होली में-
रंग डालो जी प्यार से उठा उसी का चित्र