शनिवार, 30 अगस्त 2008

अंतिम इच्‍छा नेता की

निसदिन विनती करूं तुम्‍हारी, निसदिन तुमको ध्‍याऊं मैं
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं


आजादी पाने की खातिर अंग्रेजों से नहीं लड़ा था
मरने वाले थे आगे मैं सबसे पीछे दूर खड़ा था
आजादी मिलते ही हमने एक इलेक्‍शन तभी लड़ा था
संसद में आते ही फिर मैं कुर्सी खातिर खूब लड़ा था

लड़ता था, लड़वाता था, अब सबको खूब लड़ाऊं में
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं


जनता ने देकर वोटों से किस्‍मत की खिड़की खुलवा दी
पहले शासक की जमी जड़ें पल भर में जिसने हिलवा दी
धन्‍यवाद उस जनता को जिसने ये कुर्सी दिलवा दी
सत्‍ता रूपी मदिरा की दो घूंट मुझे भी पिलवा दी

पी पीकर ये घूंट मजे से फिर अपना हुक्‍म चलाऊं मैं
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं


हो जाये गर ऐसा ही मैं भवसागर से तर जाऊं
राजघाट और विजयघाट सा घाट एक बनवा जाऊं
सरकारी शमशान घाट पर अपना नाम लिखा जाऊं
अंतिम इच्‍छा है बाकी बस कुर्सी पर ही मर जाऊं

मरूं जेल में सड़ सड़ कर इस झंझट से बच जाऊं मैं
कर दो बेड़ा पार प्रभू फिर गीत तुम्‍हारे गाऊं मैं

गुरुवार, 28 अगस्त 2008

याद आता है बचपन

मुझे बचपन खूब याद आता है। मैं बहुत छोटा था। हर रोज शाम को एक घर से धुंआ उठता देख पड़ोस वाले भी दोड़ पड़ते थे, हाथ में एक करसी *उपले का टूटा हिस्‍सा* लेकर। आग मांगने के लिए। यही परम्‍परा थी, रिवाज था चूल्‍हा जलाने का और पेट की आग बुझाने का। कहने का मतलब पेट की आग बुझाने के लिए आग बंटती थी। इस आग बंटने के बाद सब समझ जाते थे कि कहां कहां आग जल रही है और कहां नहीं। जहां नहीं जल पाती थी तो वहां की व्‍यवस्‍था गांव के लोग या कहें पड़ोस वाले संभाल लेते थे। लेकिन आजकल ---

पड़ोस में बहू जल जाती है या जला दी जाती है, पता ही नहीं चलता। पुलिस को भी नहीं।

रविवार, 24 अगस्त 2008

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आरकुट पर मेरा आज का भाग्‍य
यही बतला रहा है।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

हम क्‍यों मरें

मैं था एक छोटा सा बच्‍चा। भूख लगी थी। मैं जिद कर रहा था खाना खाने के लिए। खैर, बड़ी बहन ने चूल्‍हा जलाया। आज की तरह गैस की व्‍यवस्‍था नहीं थी। चूल्‍हे में उपले ' गोसे ' फोड़ कर झीना लगाना और सुलगाना पूरा समय लेता था। भूख में इंतजार करना काफी कष्‍टकारी हो रहा था। जैसे ही पहली रोटी बेली जाने लगी तैसे ही एक बुरी खबर मिली बराबर वाले घर में हमारी बुढि़या ताई चल बसीं। बड़ी बहन ने तुरन्‍त चूल्‍हे से तवा उतार दिया और आग बुझा दी। इधर मैं जीवन मृत्‍यु के भेद से अनजान भूख को ज्‍यादा तरजीह दे रहा था और अपनी बड़ी बहन से जिद कर रहा था कि खाना दो। ज्‍यादा जिद करने पर मुझे डाट कर चुप करा दिया गया। यह घटना सिर्फ हमारे ही घर नहीं बल्कि पूरे गांव में किसी के घर भी खाना तब तक नहीं बना जब तक ताई जी का अंतिम संस्‍कार नहीं हो गया। घर के सभी सदस्‍यों ने मेरी भूख को बड़ी निष्‍ठुरता से तिरकृत कर दिया था। मुझे बड़ा अजीब सा प्रतीत हो रहा था। मैं ऐसे व्‍यवहार की आशा कर ही नहीं सकता था। खैर अब मुझे खाना कब मिला ये बाद में बता दूंगा अब दूसरी बात सुनिये।

मैं अब दिल्‍ली शहर में रहता हूं। एक दिन मैं अपने एक जानने वाले देव कुमार जी के यहां गया हुआ था। उनके यहां चाय पी ही रहे थे कि अचानक उनके पड़ोसी का देहांत हो गया। खबर मिलते ही उन्‍होंने पत्‍नी से कहा --
बेगम ऐसा करो जरा जल्‍दी से आलू के परांठे सेक दो, पता नहीं शमशान घाट में कितनी देर लगे। अभी तो इनके रिश्‍तेदार आएंगे।‍ फिर कहीं अर्थी उठेगी तब तक कौन भूखा मरेगा। मरने वाला तो मर ही गया। हम क्‍यों मरें।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

आजादी या भविष्‍यवाणी

पुराने ज़माने के बच्चे, बच्चे नहीं थे
उनके संस्कार भी अच्छे नहीं थे
या उनकी नैतिक शिक्षा मैं कमी थी
या जहाँ वो जन्मे थे ज़हरीली ज़मीं थी
क्योंकि जो बात नेहरू ने -
पिछली सदी मैं कही थे
बिल्कुल सही थी
वरना कोई भी कैसे कह देता
आज के बच्चे, कल के नेता